दीपावली विशेष । मिट्टी के दीपक बनाने वालों के घर अंधेरा कैसे ? देखिए इस विडियो में |
Why does Festival of lights not lighten up potter's home ? |
दीपावली पर धनलक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के #दीपक बनाने वाले कुम्हारों के चाक ने गति पकड़ ली है, उन्हें इस बार अच्छी बिक्रीकी उम्मीद है। पुश्तैनी रूप से मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कारीगरों के परिवार #मिट्टी का सामान तैयार करने में व्यस्त हैं।
नीलम सिनेमा के पीछे बालोतरा में फिरोज भाई मोयला कुम्हार व अन्य शिल्पकारों घरों के घरों में मिट्टी के दीपक, सिकोरा, धूपदान, आदि बनाने के लिए परिवार के सभी सदस्य हाथ बटा रहे हैं। कोई मिट्टी गूंथने में लगा है तो किसी के हाथ चाक पर मिट्टी के बर्तनों को आकार दे रहे हैं। दीपावली पर्व पर धन लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं। चाक के पहिया बड़ी मेहनत से कारीगरों द्वारा मिट्टी के दीपक धूपिया सिकोरा, घड़ा, करवा, गमला, गुल्लक, गगरी, मटकी, नाद, सहित अन्य मिट्टी के र्बतन बनाए जाते हैं।
मिट्टी गढ़कर उसे आकार देने वालों पर शायद धन लक्ष्मी मेहरबान नहीं है, जिसके चलते अनेक परिवार अपने परंपरागत धंधे से विमुख होते जा रहे हैं। दीपावली पर्व पर मिट्टी का सामान तैयार करना उनके लिए सीजनेबल धंधा बनकर रह गया है। हालात यह है कि यदि वे दूसरा धंधा नहीं करेंगे तो दो जून की रोटी जुटा पाना कठिन हो जाएगा।
मिट्टी के बर्तनों के कारोबार से जुड़े कुम्हारों का कहना है कि दीपावली व गर्मी के सीजन में मिट्टी से निर्मित बर्तनों की मांग जरूर बढ़ जाती है, लेकिन बाद के दिनों में वे मजदूरी करके ही परिवार का पेट पालते हैं। बालोतरा निवासी फिरोज भाई मोयला का कहना है कि दूर से मिट्टी लाना, महंगी लकड़ी खरीदकर दीपक पकाने में जो खर्च आता है, उसके मुकाबले आमदनी लगातार घटती जा रही है। घर के आठ सदस्य दिन रात मेहनत करके एक दिन में एक सैकड़ा दीपक बना पाते हैं, वहीं दूसरी ओर बाजारों में इलेक्ट्रानिक्स झालरों की चमकदमक के बीच मिट्टी के दीपक की रोशनी धीमी पड़ती जा रही है, जिसके चलते लोग दीपकों का उपयोग महज पूजन के लिए ही करने लगे हैं। इस कारण उन्हें अपनी मेहनत का उचित मेहनताना नहीं मिल रहा। यही कारण है कि कई लोगों ने इस काम को छोड़ दिया है।
सरकार की मदद की दरकार
मिट्टी लाने एवं दिए बनाने से लेकर पकाने में जो खर्च होता है, उसके हिसाब से लाभ नहीं होता है। हम लोग सीजन के बाद अन्य काम करने लगते हैं। इस कला को बचाने के लिए सरकारी मदद दी जानी चाहिए, जिससे हमारी मिट्टी गढ़ने की कला बची रहे।
हमारे घर में आठ-दस पीढ़ियों से इस धंधे को किया जा रहा है। लेकिन, अब पहले जैसी खरीददारी नहीं होती। अब मिट्टी वाले बर्तन सीजनेबल धंधा बनकर रह गए हैं।
मिट्टी से बने आइटम से लोगों का का रुझान कम हो गया है, जिस हिसाब से इसमें मेहनत और पैसा लगता है उसके सापेक्ष हमें बहुत कम लाभ मिल पाता है। यही कारण है कि हम लोग दीपावली व गर्मियों में ही इस धंधे को करते हैं, बाकी दिनों में अन्य काम करके पेट पालना पड़़ता है ।
#balotraevents
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